कैथार्सिस - 1 Amita Neerav द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कैथार्सिस - 1

अमिता नीरव

1

धनक.... कितना सुंदर नाम है। वह उसे बार-बार प्रोनाउंस कर रहा था। देर रात अथर्व होटल के रूम में पहुँचा था। सोमवार को वह कंपनी ज्वाइन करने वाला है और इसलिए आज सुबह की फ्लाइट से वह यहाँ पहुँचा है। सुजॉय ने उसे पिक किया और होटल के रूम में ले गया। असल में वह भी एक मेंस होस्टल में रहता है। इस शहर में आजकल सर्वसुविधायुक्त मेंस वर्किंग होस्टल बड़ी संख्या में खुल गए हैं। लेकिन नियम यह है कि गेस्ट नहीं ठहरेंगे। इसलिए अथर्व होटल के कमरे में है। हालाँकि सुजॉय के होस्टल का रूम देखकर उसे अच्छा लगा। बड़ा, साफ-सुथरा, हवादार और हर तरह की सुविधा से लैस... होटल के कमरे की तरह ही। साफ-सफाई, पानी आदि की जिम्मेदारी भी अपनी नहीं। मैस भी है, जरूरत हो तो टिफिन भी मिल सकता है। 
इससे ज्यादा और क्या चाहिए?- अथर्व ने कहा। 
तो सुजॉय ने जवाब दिया - हाँ यार यहाँ हर तरह से मुक्ति है। हम कुछ लोग फ्लैट में भी रहे थे, लेकिन आए दिन कोई-न-कोई नई समस्या सिर उठाती है वहाँ। कभी नल टपक रहा है तो कभी गैस सिलेंडर खत्म हो गया है। कभी मैड टाइम पर नहीं आती है तो कभी खाना खराब हो जाता और भूखे ही सोना पड़ता। तब सोचा यही ठीक है। तुझे पसंद आया तो चल बात कर लेते हैं। 
लेकिन जब वो लोग पहुँचे तो मैनेजर ने बताया कि फिलहाल तो कोई कमरा खाली नहीं है। एकाध सप्ताह में होने वाला है। सुजॉय और अथर्व ने तय किया कि तब तक वह होटल के रूम में ही रह लेगा। 

ये इत्तेफाक ही था कि जिस वक्त अथर्व पहुँचा ऐन उसी दिन कंपनी की एन्युएल मीट की पार्टी थी। सुजॉय के माध्यम से ही उसे कंपनी में जॉब मिली थी, क्योंकि वह उसका कॉलेज फ्रेंड था, जिसने इस शहर मे बुलाया था। सुजॉय के साथ ही वह पार्टी में शामिल हुआ था। उसके अतिरिक्त वह किसी को भी नहीं जानता था, लेकिन वहाँ अधिकारियों से मिलने के बाद सुजॉय उसे अपने सर्कल में ले गया था। एक साथ कई लोगों से मुलाकात करवाई थी.... कुछ नाम याद रहे गौतम, कबीर, अशफाक, नीरज, सुनिधि, जया, सौम्या और धनक....। सबसे सुंदर और उतना ही अटपटा नाम.... धनक...। 


वैसे तो वह जहाँ काम कर रहा था, वहाँ भी सब कुछ ठीक ही था, लेकिन पढ़ाई के दौरान ही उसने तय कर लिया था, कि जब तक अकेले रहेगा, जीवन का पूरा अनुभव लेगा। क्योंकि उसने देखा था पापा के कंफर्ट ज़ोन को...। कितने प्रतिभाशाली और अजीमोशान शख्सियत है पापा की, बस अपने शहर और अपनी जड़ों से अटके रहने ने सब कुछ को मिट्टी कर दिया। 
अथर्व ने चूँकि कुछ नहीं से शुरू किया है, इसलिए कुछ नहीं होने से डर भी नहीं लगता है। आखिर तो वही जाना है न... अंत तो सबका एक-जैसा ही होना है। सुजॉय को उसके इस दर्शन से बड़ी चिढ़ है। वह अंत की नहीं सोचता है। वह सपने देखता है, भविष्य के बारे की योजनाएं बनाता है, अथर्व बहुत दूर नहीं सोचता है। छोटी-छोटी योजनाएं बनाता है और उसी को पूरा करके खुश रहता है। पुरानी नौकरी में भी कुछ दिक्कत तो थी नहीं, बस शहर से ऊब गया था। कुछ चीजें हमारे अवचेतन में न जाने कब से ठहरी रहती है, पता नहीं कोई कैसे बनता होगा, लेकिन अथर्व को लगातार लगता रहा है जैसे वह प्रतिक्रिया की संतान है... बाबा की स्थिरता में उसे जड़ता नजर आती रही है। एक ही साथ वह उनसे प्यार भी करता रहा और गुस्सा भी। जीवन की कितनी छोटी-बड़ी चीजें उसके मन में, जीवन में, व्यवहार, विचार और शैली पापा की ही रोपी हुई है। बस फिर भी उनकी स्थिरता ने जैसे उसमें विद्रोह के बीज बो दिए हैं। बाबा ने कहा भी था - संतुष्टि सर्वश्रेष्ठ उपहार है, क्योंकि ख्वाहिशों की तो कोई सीमा ही नहीं। जरा देर खुद के पास ठहरो तो... जानो तो कि चाहते क्या हो???
लेकिन अथर्व को इसी दर्शन से चिढ़ थी उनके। इसलिए बिना वजह वह यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ भटक रहा है। यही भटकाव उसे यहाँ इस शहर में ले आया है। वह जानता है यह भी आखिरी नहीं है। सफर थकने तक जारी रहेगा। 
सुजॉय से उसकी लगातार बात होती रहती थी, आखिर तो करीबी दोस्त जो ठहरा। उसने भी राय दी थी, यहीं आ जा... फिर से स्टूडेंट लाइफ जिएंगे। 
उसकी राय पसंद आई, सब इत्तेफाक जुड़ते चले गए और आज वह उनकी एन्युएल मीट पार्टी में था। अथर्व को डर में भी रोमांच होता है, अजीब तो खैर वह है ही... उसकी बहन उज्जवला कहती है कि तुम इस पीढ़ी के लगते नहीं हो। हाँ, तभी शायद उसकी बाबा से खूब गहरी छनती है। 
उनका अल्लसुबह उठ जाना, सूर्योदय को आँखभर कर देखना, तब तक जब तक कि खुद सूर्य ही तमतमाकर झल्ला न जाए। जाने कब से उसने भी बाबा की दिनचर्या की नकल करना शुरू कर दिया था, अब भी जब कभी गम-ए-दुनिया से आजिज आ जाता है तो बाबा की तरह दिन गुजारता है। घऱ जाता है, तब तो पूरी तरह से बाबामय हो जाता है। माँ खूब हँसती है, उज्जवला जब कभी घर आती है, तब वो भी हँसती है। 


उस होटल के लाउंज में कंपनी की आलीशान पार्टी में जब ऑफिसर्स से मिलकर अथर्व सुजॉय के साथ उसके ग्रुप की तरफ बढ़ रहा था, तब व्हाइट इवनिंग गाउन में डांस फ्लौर पर खिलखिला रही उस लड़की पर उसकी नजर पड़ी थी। और तो कुछ खास देख नहीं पाया था, लेकिन उसकी खिलखिलाहट ने जैसे भ्रम में डाल दिया। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे सुबह-सुबह जब वह बाबा के नदी के घाट वाले देवी मंदिर में जाकर कूद-कूदकर घंटियां बजाता था, बस बिल्कुल वैसी ही उसकी हँसी सुनाई दी उसे। 
जानता है, सुजॉय को बताएगा तो वह ठहाके मारकर हँसेगा। अब लगा तो लगा... सुजॉय ने एक बड़ी-सी टेबल के पास जाकर ताली बजाई... लुक एट हीयर गायज... एक-एक करके 10-12 लोग वहाँ जमा हो गए। आश्चर्य कि उसमें वह लड़की भी थी। परिचय में जाना था नाम... धनक....। 

अथर्व के काम का पहला दिन था। अभी तक वह होटल में ही था और सुजॉय ने उसे ताकीद की थी, खाना मैस से ही लेना। कंपनी की मैस में खाना अच्छा भी है और सस्ता भी। जिनके घर यहाँ है वे भी यहीं खाना खाते हैं। ऐसा शायद हर दफ्तर में होता होगा कि लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग खाना खाने जाते होंगे। पुराने दफ्तर में भी यही होता था। अलग-अलग जाते हैं और अलग-अलग टेबलों पर ही बैठते हैं। अजीब बात है साथ काम करते हुए भी वो सहजता नहीं नजर आती है जो इतने साल साथ पढ़ने और फिर काम करते हुए आनी चाहिए। क्या चीज हुआ करती है जो स्त्री और पुरुष को सहज नहीं होने देती? 
ऐसा लगता है जैसे लड़के और लड़कियां अपने-अपने घेटो बना लेते हैं, उसी में रहते हुए वे खुद को सुरक्षित पाते हैं। लड़कों के ग्रुप में तो फिर भी लड़कियों की एंट्री हो जाती है, लेकिन लड़कियों के ग्रुप में पहले तो लड़के ही एंट्री नहीं करते और यदि कोई साहस करके कर भी ले तो उसे ऐसे रिएक्शंस मिलते हैं कि वो अगले ही दिन से अपने घेटो में लौट जाता है। यहाँ भी मामला कुछ ज्यादा अलग नहीं है। 
इतना ही नहीं लड़के और लड़कियों के खाना खाने का समय तक अलग-अलग है। जब लड़के खाना खाकर लौट रहे होते हैं, तब लड़कियों का ग्रुप आता है। कबीर कहता है कि फीमेल्स को भूख भी कम लगती है और प्यास भी। जब भी डेडलाइन मीट करनी होती है, लड़कियाँ पूरा-पूरा दिन बिना खाए-पिए काम करती है। अशफाक की थ्योरी कुछ अलग है, वो कहता है कि ‘खुदा ने औरतों को हम आदमियों से अलग ही बनाया है। वो हमारी तुलना में कम खाती है, ज्यादा काम करती है... वो ज्यादा सह सकती है क्योंकि उन्हें बच्चों को जन्म देना होता है।‘
सुजॉय पूछता है ‘इसका क्या मतलब है यार....’ 
इसका सीधा-सा मतलब है कि ‘औरतों का शरीर ज्यादा सहने की ताकत रखता है तभी वो  बच्चे को जन्म दे पाती है।‘
‘ऐसा भी तो हो सकता है कि ज्यादा लोच होता है इसलिए वे बच्चे को जन्म दे पाती है?’ – सुजॉय तर्क करता है। 
‘हाँ, हो सकता है... लेकिन एक चीज और है कंडीशनिंग... ‘- अथर्व कहता है ‘जब बचपन से ही उन्हें सहना सिखाया जाता हो, जब बचपन से ही उन्हें अपनी इंद्रियों पर काबू पाने की ट्रेनिंग दी जाती हो, तब बड़े होकर वे वैसी हो ही जाती है।‘ 
‘हो सकता है, यही सही हो... ‘- गौरव समर्थन करता है। 
‘एक बात और है’  - कबीर याद दिलाता है। - ‘हमेशा ऐसा लगता है कि लड़कियाँ हमसे एक अजीब-सी कॉम्पीटिशन में रहती हैं। वे हमेशा यह दिखाना चाहती हैं कि वो ज्यादा इफिशिएंट है और ज्यादा हार्डवर्किंग भी... इसलिए भी वे ऐसा करती है।‘ - अथर्व ने उसकी तरफ चौंककर देखा। उसे तो ऐसा नहीं लगा कभी, तभी पीछे से जवाब आया - 'हाँ, क्योंकि यह उनके लिए बेहद जरूरी है। वर्कप्लेस पर अब भी फीमेल्स को सीरियसली नहीं लिया जाता है।‘ - ये धनक थी। वो अपने पूरे अग्रेशन में थी। अथर्व कुछ कहने जा रहा था तो सुजॉय ने उसका हाथ दबा दिया था। शायद अथर्व के अतिरिक्त बाकी सब जानते हैं कि धनक बेहद महत्वाकांक्षी हैं। उसका करियर उसके लिए सबसे पहली प्रॉयोरिटी है। पिछले दिनों ही उससे कंपनी ने उसके साथ गंभीर चीटिंग की थी। उससे वह बेहद आहत थी। यह उसके उस दुख का एक्सप्रेशन था। हॉल में सन्नाटा छा गया। शायद खुद धनक को भी यह लग गया होगा कि वह बेवजह एग्रेशन में आ गई तो उसने पहले अपनी नजरें झुकाईं और फिर 'सॉरी गायज' कहकर वहाँ से चली गई। 

अथर्व उसका जाना देखता रहा। जब वह नजरों से ओझल हो गई, तब भी वह उसके भीतर जाती रही। देर रात को भी उसने उसे उसी तरह जाते देखा... सपने में भी। सुबह नींद खुली तो फिर से अपनी कल्पना और विचारों में भी। वह जानना चाहता है कि वो क्या है जो धनक को बाकी लड़कियों से अलग करता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे ही यह महसूस होता है? 

अथर्व के कंपनी ज्वाइन करने के बाद ये पहली आउटडोर गेट-टू-गेदर था। पहले तो सिर्फ गेट-टू-गेदर ही हुआ करता था, लेकिन इन दिनों यह वर्क कम प्लेजर हो गया है। हर दिन एकाध मीटिंग तो होती ही है। मीटिंग का सारा फोकस इस बात पर होता है कि कैसे सेल बढ़े.... हम डिमांड में रहें। और इसके लिए कितने हथकंडे.... सोचकर अथर्व जरा असहज हो उठा।

शहर के बाहर फार्म हाउस में वीकेंड्स में आउटिंग। सटरडे मॉर्निंग कंपनी की बस से सब निकले थे। अथर्व समझने लगा है कि जिस तरह पाँच दिन हाड़तोड़ काम करते हैं, दो दिन मस्ती के लिए जरूरी होते हैं। पिछली कंपनी में भी ऐसा ही था, हाँ वहाँ चुनौतियाँ, कॉम्पीटीशन और काम इतना नहीं था। कंपनी छोटी भी थी... ये बड़ी है, ज्यादा काम है, उतना ही बड़ा नेटवर्क। इस दौर में अपने-अपने में सिमटे रहें तो काम चलता नहीं है। जितना बड़ा नेटवर्क उतने ज्यादा अवसर... जितने ज्यादा अवसर उतनी बड़ी सफलता। समझते-समझते अथर्व समझने लगा था। सब समय पर ऑफिस पहुँच गए थे। आखिर सबको जाना यहीं से था। हरेक को उसके डेस्टिनेशन से लेने में तीन घंटे में तो शहर से निकल पाते। इसलिए यही सबसे मुफीद पाया लगता है। जितना बड़ा शहर उतनी बड़ी दिक्कतें। जितनी बड़ी दिक्कतें, उतने ज्यादा तोड़.... इस विचार ने अथर्व के चेहरे पर मुस्कुराहट ला दी। 
यहाँ देश के दक्षिणी हिस्से में दिसंबर बड़ा सुहाना हुआ करता है। उत्तर में तो सर्दी तांडव मचा रही है। कितने लोग सर्दी में मर जाते हैं। हाँ तो गर्मी में ही कौन-सा सब ठीक होता है, हर मौसम में लोग मरते हैं। ये प्रकृति की नहीं सिस्टम की खामी है। सिस्टम अपने लोगों की सुरक्षा नहीं कर पाता है। प्रकृति को तो जो करना है वो करना ही है... उसका सिस्टम तो सुचारू है। अथर्व कुछ-का-कुछ सोचने लगा। 
कई बार उसे अपने काम और दिनचर्या से कोफ्त होती थी। यहाँ काम का प्लैजर नहीं होता है, अधिकारियों की कसौटी पर खरे उतरने का दबाव होता है। उसने सिर झटका, गाहे-ब-गाहे इस तरह के विचार उसे आकर परेशान करते ही रहते हैं। उसने नजरें उठाकर कांफ्रेंस रूम को देखा। लगभग सारे ही अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त नजर आए। वह जरा देर के लिए हॉल से निकल गया। उसे गैजेट का शौक है, लेकिन लत नहीं है।